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कविता

देह का निर्गुण और सगुण

पुष्पिता अवस्थी


देह की देहरी पर
प्रेम
सुख बनकर आता है
मन देह की खातिर
ह्दय के आले पर
अबुझ दीया धर जाता है
देह के
अंतर्मन की भित्ति पर
टाँग देता है
कई स्वप्न कैलेंडर
कैलेंडर की छाती पर
होते हैं प्रणय के जीवंत छाया चित्र
गतिशील चलचित्र
पग-तल में होता है जिनके
वर्ष-चक्र तिथियाँ, दिवस, माह

देह से घिरे, घर-भीतर
पकती है प्रेम-गंध की रसीली रसोई
कभी तृषा मिटाने के लिए
कभी तृषा जगाने के लिए ।

देह-गेह के प्रांगण-बीच
टँगा है मनोहर पिंजरा
पला है जिसमें हरियाला तोता
देह-गीत गाता है जो
लोकगीतों की तरह
मनकथा कहता है जो
किस्सा-गो की तरह
देह के भीतर
मन की खँजड़ी पर
ध्वनित होता है
देह का निर्गुण और सगुण ।

 


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